Kumar Aparajit shared परम संत डॉ. चतुर्भुज सहाय जी साहेब , रामाश्रम सत्संग, मथुरा's status.
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Share with Thanks to Ramasraya Satsang Mathurs(i.e.By परम संत डॉ. चतुर्भुज सहाय जी साहेब , रामाश्रम सत्संग, मथुरा)
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अमीर खुसरो – गुरु-प्रेम के अदभुत प्रतिमूर्ति
(परम आदरणीय श्री रघुबीर प्रसाद त्यागी जी का यह अदभुत लेख ‘साधन’ के जनवरी २००७ के अंक में शीर्षक “मुरीद अम्रीर खुसरो” के तहत छपा था)
अमीर खुसरो केवल आठ साल के थे, तभी से इश्वर प्राप्त करने की इच्छा दिल में उत्पन्न हो गई। किसी समर्थ गुरु की तलाश में घूमने लगे।
कहते हैं कि अगर लगन हो तो क्या नहीं मिलता? इस प्रभु प्रेमी को भी पता चल गया हज़रत निजामुद्दीन औलिया के दरबार का। बस चल पड़ा इश्क की बाजी खेलने के लिए। हज़रत साहब के दरगाह पर पहुंचा। हजरत साहब से मिलने की प्रार्थना की। नन्हें खुसरो की प्रबल भाव तरंगे हजरत साहब के अंतर्यामी स्वरुप को छू गई। उन्होंने मिलने की इजाजत दे दी। खुसरो ने जब पहली मर्तबा दरगाह के अंदर पैर रक्खा उसे कुछ कुछ होश था, लेकिन हजरत साहब को देखने के बाद वह रहा सहा होश भी जाता रहा। ऐसा बेहोश हुआ कि ताउम्र होश में नहीं आ सका। जीवन की अंतिम श्वास तक अपने गुरु के आगे गर्दन झुकाई रक्खी।
एक बार हजरत निजामुद्दीन औलिया मस्ती भरी चाल में आगे आगे चले जा रहे थे। अमीर खुसरो सहित अनेक शिष्य उनके पीछे पीछे चल रहे थे। अचानक हजरत साहब एक वेश्या के कोठे के पास रुके और शिष्यों को बिना कोई निर्देश देते हुए ऊपर चले गए। सभी शिष्य अचंभित निगाहों से देखते रह गए। अनेकों सवाल मन में खड़े हो गए -- यह क्या? गुरुदेव जो दूसरों के क़दमों को सही दिशा देने वाले, आज स्वयं दिशा कैसे भटक गए? सभी शिष्य वहीँ पर इंतज़ार करने लगे। शाम ढली, रात हो गई। अगले दिन सुबह भी निकल आई, मगर यह सुबह शिष्यों के लिए संशयों का तूफ़ान लेके आई। ऐसा तूफान जो कई शिष्यों को उड़ा ले गया। अपने कमजोर मन के हाथों बेबस हुए, गुरु को त्याग संसार की रह पर चल पड़े। अन्य मुरीदों के लिए यह दिन भी भूखे प्यासे इंतज़ार करते हुए निकल गया। तीसरे दिन की सुबह हुई कोठे पर से एक हट्ठा कट्ठा दास नीचे उतरकर आया। कोई सन्देश लेकर नहीं, बल्कि हाथ में डंडा लेकर। उसने आव देखा न ताव आते ही सब शिष्यों की पिटाई शुरू कर दी। जो कदम जो दिन से जमे हुए थे, वे अब लड़खड़ा गए, भीतर विचार उठा, हो न हो गुरुदेव ने ही इसे भेजा होगा, अब तो बस हद हो गई, एक तो भूखे प्यासे इंतज़ार करें, ऊपर से डंडे से हड्डियां भी तुरवायें, यह कहाँ का न्याय? हम तो चले। सारे के सारे वहाँ से झुंझला कर चले गए। अगर कोई संदेह रहित प्रेम से पूरित मन से खड़ा रहा तो वो था अमीर खुसरो। कुछ समय बाद गुरुदेव नीचे उतर आये। खुसरो को देखकर बोले, सब लोग कहाँ चले गए? खुसरो ने गर्दन झुकाते हुए कहा शायद अपने अपने घर चले गए। अंतर्यामी गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए पूछा -- फिर तुम क्यों नहीं गए? तुम भी चले जाते। यह वाक्य सुनकर खुसरो गुरु के चरणों में गिरकर बिलख उठा। बोला -- मेरे पनाहगार सभी का कोई न कोई था इसलिए वे उनके पास चले गए। मेरा तो मेरे साहिब आप के सिवा कोई नहीं है। फिर मैं यहाँ से किसके पास जाता? गुरुदेव गदगद हो उठे, अपने प्यारे मुरीद को सीने से लगा लिया। दोनों में प्रेम बहने लगा, लेकिन बिना किसी अल्फाज़ के। यह हकीकत है कि निजामुद्दीन ही खुसरो के सर्वस्व बन चुके थे। उसकी दशा उस मछली की भांति हो चुकी थी जिसका जल ही जीवन है। एक तालाब में मछली, कछुआ, मेढक, मगरमच्छ आदि बहुत से जल जीव रहा करते थे। एक बार कुदरत की मार से उस तालाब का जल सूखने लगा। चिंता तो सभी को हुई पर मछली तो तड़प उठी। फिक्र के मारे बदहवास सी हो चली। किसी ने उससे पूछा तुझे ही इतनी फिक्र क्यों? और भी तो हैं। वे तो इतने चिंतित दिखाई नहीं दे रहे। मछली ने कहा -- अरे भाई वे सभी तो जल के उपभोक्ता हैं, पर मेरे लिए तो जल ही जीवन है। वे तो यहाँ मौज मस्ती के लिए आते हैं, इससे जुदा होकर भी जी सकते हैं, पर मैं नहीं। जल तो मेरा प्राण है, यह मेरा ठौर ठिकाना है।जैसे मीन को जल से सच्चा प्रेम होता है, ठीक वैसा ही खुसरो को अपने मुर्शिद निजामुद्दीन से था। खुसरो साहब एक ऐसे शिष्य थे जिनकी मौत और जीवन दोनों गुरु से जुड़े हुए थे।
अमीर खुसरो मन से तो शहीद हो चुका था पर इतिहास बताता है कि वह तन से भी शहीद हुआ। बात तब की है जब उसके पीर निजामुद्दीन साहब संसार से विदा लेने लगे। उस अंतिम वेला में सभी शिष्य गण उनके पास बैठ गए थे, मगर अमीर खुसरो नहीं था। क्योंकि उन्होंने इरादतन उसे सेवा के लिए दूर भेज दिया था। वे जानते थे कि अमीर खुसरो की उपस्थिति में वे अपने शरीर को त्याग नहीं पाएंगे। शरीर त्यागते समय भी उन्हें अमीर खुसरो की चिंता थी। शरीर त्यागते समय शिष्यों से कहा था -- जब खुसरो आये तो उसे सम्हाल लेना, मेरी कब्र पर उसे मत आने देना।
अगर उसने कब्र पर आकर मुझे वापस आने को कह दिया, तो मैं रुक नहीं पाउँगा। मेरे मकबरे पर गिरे उसके आँसू मुझे प्रकृति के नियम की उल्लंघना करने पर विवश कर देंगे। मुझे कब्र फाड़कर उसको गले लगाने के लिए आना पड़ेगा। मैं जानता हूँ उससे मेरा वियोग सहन नहीं होगा। फिर भी मेरे शास्वत रूप के बारे में बताना। इतना कह कर गुरुदेव परमधाम चले गए। कुछ दिन गुजरे। जैसे सागरीय जहाज के पक्षी के लिए कोई अन्य ठिकाना नहीं होता, वह उड़ता है पर कुछ समय बाद फिर जहाज पर वापिस आ जाता है। उसी तरह खुसरो के लिए भी गुरु और गुरु आश्रम के सिवाय कोई अन्य ठिकाना था ही नहीं। आखिर लौट के आना ही था।
ज्योंही आश्रम के मुख्य द्वार पर खुसरो पहुंचा, उसे कुछ अजीब सा लगा। घबरा गया कि आश्रम की चहल पहल कहाँ चली गई। उसने अंदर प्रवेश किया। खुसरो को देख सभी शिष्य घबरा गए। कौन कड़वा सत्य बतलायेगा? खुसरो व्याकुल हृदय से बोला -- अच्छा जाओ, गुरुदेव को बता दो मैं दर्शन करना चाहता हूँ। गुरुभाई ने कहा – हाँ, बता देंगे। पहले कुछ खा पी लो, थोड़ी थकावट तो दूर कर लो, फिर दर्शन भी कर लेना। खुसरो भाव प्रवाह में बोल उठा -- अरे मेरी भूख, मेरी थकावट तो उनके दर्शनों से दूर होगी। तुम बस गुरुदेव को बोल दो कि खुसरो आ गया है, उनके दर्शनों के इंतज़ार में है।
सभी सोचने लगे कि अब तो बता ही देना चाहिए। उन्होंने खुसरो के कानों में वह कड़वा सत्य डाल ही दिया। उसे सुनते ही खुसरो को महान दुःख हुआ। एक शिष्य साहस करके आगे आया, उसने खुसरो को गले लगाया। कुछ बोलने से पहले खुसरो को लगा जैसे वह पानी के लिए तडपती मछली को आकाश में उड़ रहे बादल दिखा कर कोई आश्वासन देने लगा हो। वह जानता था कि मछली में इतनी तसल्ली कहाँ कि वह पानी भरे बादलों को देख देख कर जी ले। फिर भी उस गुरुभाई ने समझाया और कहा -- गुरु तो अजन्मा है, शाश्वत है, हमेशा तेरे पास है, खुसरो उसे अपने प्राणों में महसूस कर, निराकार रूप में वह पहले भी तेरे साथ था, अब भी है। साकार रूप में तो लीला समाप्त करनी थी। खुसरो सभी की बातें सुन कर बोला -- मुझे बातों में मत फंसाओ। माना मुर्शिद का रूहानी रूप मेरे अंदर बसा है। मगर मुझे बताओ उसके साकार रूप के वो मीठे बोल, वो प्यारी चाल, वो प्रेम भरी निगाहें, वह सब कहाँ है? कुछ भी तो नज़र नहीं आ रहा है। मेरे आँखों की भटकन उन्हीं के लिए थी। मेरे कानों की प्यास उनके बोल थे। मेरे मस्तक का श्रृंगार उनकी चरण रज थी। अब तुम बताओ, मैं इनको समझाऊँ भी तो क्या। अब मेरी ऑंखें वही दीदार मांग रही है, कान वही प्रेम भरे शब्द मांग रहे हैं, यह सर उनके कोमल चरणों का स्पर्श मांग रहा है, अब ये आँसू अनाथों की तरह बह रहे हैं, उनके दामन को तरस रहे हैं। बोलो मैं इन सब को कैसे ढाढस बँधाऊँ?
मेरे औलिया, अगर खुद जाना था तो वह प्यास भी ले जाते। यह आस और तड़पन भी ले जाते। रोता बिलखता खुसरो यकायक अवाक खड़ा रह गया। सीने में तूफ़ान उठा, लगा दिन होते हुए भी रात हो गई है। खुसरो का दिल धड़क कर कहने लगा – चल, चल खुसरो, अपने मुर्शिद के देश चल। अब तेरा यहाँ क्या काम? यहाँ तो अब रात हो गई है। खुसरो सरपट गुरु की कब्र की तरफ दौड़ पड़ा। कब्र के पास पहुँचते ही भीतर से आह निकली। इस आह में ऐसी चीख थी, ऐसी अरदास थी, कि वह कबूल हुई। खुसरो कभी न उठने के लिए कब्र पर झुका, और अपने मुर्शिद पर ही अपना जीवन समाप्त कर दिया।
बस पपीहा तृप्त हो गया। उसकी पिऊ पिऊ हमेशा के लिए समाप्त हो गई। दोनों मिलकर एक हो गए। खुसरो एक ऐसे मुरीद थे, जिन्होंने अपनी पाक खिदमत द्वारा मंजिले मकसूद को हासिल किया था। अपना सर्वस्व गुरु पर न्योछावर कर दिया था। धन्य हैं ऐसे शिष्य।
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(परम आदरणीय श्री रघुबीर प्रसाद त्यागी जी का यह अदभुत लेख ‘साधन’ के जनवरी २००७ के अंक में शीर्षक “मुरीद अम्रीर खुसरो” के तहत छपा था)
अमीर खुसरो केवल आठ साल के थे, तभी से इश्वर प्राप्त करने की इच्छा दिल में उत्पन्न हो गई। किसी समर्थ गुरु की तलाश में घूमने लगे।
कहते हैं कि अगर लगन हो तो क्या नहीं मिलता? इस प्रभु प्रेमी को भी पता चल गया हज़रत निजामुद्दीन औलिया के दरबार का। बस चल पड़ा इश्क की बाजी खेलने के लिए। हज़रत साहब के दरगाह पर पहुंचा। हजरत साहब से मिलने की प्रार्थना की। नन्हें खुसरो की प्रबल भाव तरंगे हजरत साहब के अंतर्यामी स्वरुप को छू गई। उन्होंने मिलने की इजाजत दे दी। खुसरो ने जब पहली मर्तबा दरगाह के अंदर पैर रक्खा उसे कुछ कुछ होश था, लेकिन हजरत साहब को देखने के बाद वह रहा सहा होश भी जाता रहा। ऐसा बेहोश हुआ कि ताउम्र होश में नहीं आ सका। जीवन की अंतिम श्वास तक अपने गुरु के आगे गर्दन झुकाई रक्खी।
एक बार हजरत निजामुद्दीन औलिया मस्ती भरी चाल में आगे आगे चले जा रहे थे। अमीर खुसरो सहित अनेक शिष्य उनके पीछे पीछे चल रहे थे। अचानक हजरत साहब एक वेश्या के कोठे के पास रुके और शिष्यों को बिना कोई निर्देश देते हुए ऊपर चले गए। सभी शिष्य अचंभित निगाहों से देखते रह गए। अनेकों सवाल मन में खड़े हो गए -- यह क्या? गुरुदेव जो दूसरों के क़दमों को सही दिशा देने वाले, आज स्वयं दिशा कैसे भटक गए? सभी शिष्य वहीँ पर इंतज़ार करने लगे। शाम ढली, रात हो गई। अगले दिन सुबह भी निकल आई, मगर यह सुबह शिष्यों के लिए संशयों का तूफ़ान लेके आई। ऐसा तूफान जो कई शिष्यों को उड़ा ले गया। अपने कमजोर मन के हाथों बेबस हुए, गुरु को त्याग संसार की रह पर चल पड़े। अन्य मुरीदों के लिए यह दिन भी भूखे प्यासे इंतज़ार करते हुए निकल गया। तीसरे दिन की सुबह हुई कोठे पर से एक हट्ठा कट्ठा दास नीचे उतरकर आया। कोई सन्देश लेकर नहीं, बल्कि हाथ में डंडा लेकर। उसने आव देखा न ताव आते ही सब शिष्यों की पिटाई शुरू कर दी। जो कदम जो दिन से जमे हुए थे, वे अब लड़खड़ा गए, भीतर विचार उठा, हो न हो गुरुदेव ने ही इसे भेजा होगा, अब तो बस हद हो गई, एक तो भूखे प्यासे इंतज़ार करें, ऊपर से डंडे से हड्डियां भी तुरवायें, यह कहाँ का न्याय? हम तो चले। सारे के सारे वहाँ से झुंझला कर चले गए। अगर कोई संदेह रहित प्रेम से पूरित मन से खड़ा रहा तो वो था अमीर खुसरो। कुछ समय बाद गुरुदेव नीचे उतर आये। खुसरो को देखकर बोले, सब लोग कहाँ चले गए? खुसरो ने गर्दन झुकाते हुए कहा शायद अपने अपने घर चले गए। अंतर्यामी गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए पूछा -- फिर तुम क्यों नहीं गए? तुम भी चले जाते। यह वाक्य सुनकर खुसरो गुरु के चरणों में गिरकर बिलख उठा। बोला -- मेरे पनाहगार सभी का कोई न कोई था इसलिए वे उनके पास चले गए। मेरा तो मेरे साहिब आप के सिवा कोई नहीं है। फिर मैं यहाँ से किसके पास जाता? गुरुदेव गदगद हो उठे, अपने प्यारे मुरीद को सीने से लगा लिया। दोनों में प्रेम बहने लगा, लेकिन बिना किसी अल्फाज़ के। यह हकीकत है कि निजामुद्दीन ही खुसरो के सर्वस्व बन चुके थे। उसकी दशा उस मछली की भांति हो चुकी थी जिसका जल ही जीवन है। एक तालाब में मछली, कछुआ, मेढक, मगरमच्छ आदि बहुत से जल जीव रहा करते थे। एक बार कुदरत की मार से उस तालाब का जल सूखने लगा। चिंता तो सभी को हुई पर मछली तो तड़प उठी। फिक्र के मारे बदहवास सी हो चली। किसी ने उससे पूछा तुझे ही इतनी फिक्र क्यों? और भी तो हैं। वे तो इतने चिंतित दिखाई नहीं दे रहे। मछली ने कहा -- अरे भाई वे सभी तो जल के उपभोक्ता हैं, पर मेरे लिए तो जल ही जीवन है। वे तो यहाँ मौज मस्ती के लिए आते हैं, इससे जुदा होकर भी जी सकते हैं, पर मैं नहीं। जल तो मेरा प्राण है, यह मेरा ठौर ठिकाना है।जैसे मीन को जल से सच्चा प्रेम होता है, ठीक वैसा ही खुसरो को अपने मुर्शिद निजामुद्दीन से था। खुसरो साहब एक ऐसे शिष्य थे जिनकी मौत और जीवन दोनों गुरु से जुड़े हुए थे।
अमीर खुसरो मन से तो शहीद हो चुका था पर इतिहास बताता है कि वह तन से भी शहीद हुआ। बात तब की है जब उसके पीर निजामुद्दीन साहब संसार से विदा लेने लगे। उस अंतिम वेला में सभी शिष्य गण उनके पास बैठ गए थे, मगर अमीर खुसरो नहीं था। क्योंकि उन्होंने इरादतन उसे सेवा के लिए दूर भेज दिया था। वे जानते थे कि अमीर खुसरो की उपस्थिति में वे अपने शरीर को त्याग नहीं पाएंगे। शरीर त्यागते समय भी उन्हें अमीर खुसरो की चिंता थी। शरीर त्यागते समय शिष्यों से कहा था -- जब खुसरो आये तो उसे सम्हाल लेना, मेरी कब्र पर उसे मत आने देना।
अगर उसने कब्र पर आकर मुझे वापस आने को कह दिया, तो मैं रुक नहीं पाउँगा। मेरे मकबरे पर गिरे उसके आँसू मुझे प्रकृति के नियम की उल्लंघना करने पर विवश कर देंगे। मुझे कब्र फाड़कर उसको गले लगाने के लिए आना पड़ेगा। मैं जानता हूँ उससे मेरा वियोग सहन नहीं होगा। फिर भी मेरे शास्वत रूप के बारे में बताना। इतना कह कर गुरुदेव परमधाम चले गए। कुछ दिन गुजरे। जैसे सागरीय जहाज के पक्षी के लिए कोई अन्य ठिकाना नहीं होता, वह उड़ता है पर कुछ समय बाद फिर जहाज पर वापिस आ जाता है। उसी तरह खुसरो के लिए भी गुरु और गुरु आश्रम के सिवाय कोई अन्य ठिकाना था ही नहीं। आखिर लौट के आना ही था।
ज्योंही आश्रम के मुख्य द्वार पर खुसरो पहुंचा, उसे कुछ अजीब सा लगा। घबरा गया कि आश्रम की चहल पहल कहाँ चली गई। उसने अंदर प्रवेश किया। खुसरो को देख सभी शिष्य घबरा गए। कौन कड़वा सत्य बतलायेगा? खुसरो व्याकुल हृदय से बोला -- अच्छा जाओ, गुरुदेव को बता दो मैं दर्शन करना चाहता हूँ। गुरुभाई ने कहा – हाँ, बता देंगे। पहले कुछ खा पी लो, थोड़ी थकावट तो दूर कर लो, फिर दर्शन भी कर लेना। खुसरो भाव प्रवाह में बोल उठा -- अरे मेरी भूख, मेरी थकावट तो उनके दर्शनों से दूर होगी। तुम बस गुरुदेव को बोल दो कि खुसरो आ गया है, उनके दर्शनों के इंतज़ार में है।
सभी सोचने लगे कि अब तो बता ही देना चाहिए। उन्होंने खुसरो के कानों में वह कड़वा सत्य डाल ही दिया। उसे सुनते ही खुसरो को महान दुःख हुआ। एक शिष्य साहस करके आगे आया, उसने खुसरो को गले लगाया। कुछ बोलने से पहले खुसरो को लगा जैसे वह पानी के लिए तडपती मछली को आकाश में उड़ रहे बादल दिखा कर कोई आश्वासन देने लगा हो। वह जानता था कि मछली में इतनी तसल्ली कहाँ कि वह पानी भरे बादलों को देख देख कर जी ले। फिर भी उस गुरुभाई ने समझाया और कहा -- गुरु तो अजन्मा है, शाश्वत है, हमेशा तेरे पास है, खुसरो उसे अपने प्राणों में महसूस कर, निराकार रूप में वह पहले भी तेरे साथ था, अब भी है। साकार रूप में तो लीला समाप्त करनी थी। खुसरो सभी की बातें सुन कर बोला -- मुझे बातों में मत फंसाओ। माना मुर्शिद का रूहानी रूप मेरे अंदर बसा है। मगर मुझे बताओ उसके साकार रूप के वो मीठे बोल, वो प्यारी चाल, वो प्रेम भरी निगाहें, वह सब कहाँ है? कुछ भी तो नज़र नहीं आ रहा है। मेरे आँखों की भटकन उन्हीं के लिए थी। मेरे कानों की प्यास उनके बोल थे। मेरे मस्तक का श्रृंगार उनकी चरण रज थी। अब तुम बताओ, मैं इनको समझाऊँ भी तो क्या। अब मेरी ऑंखें वही दीदार मांग रही है, कान वही प्रेम भरे शब्द मांग रहे हैं, यह सर उनके कोमल चरणों का स्पर्श मांग रहा है, अब ये आँसू अनाथों की तरह बह रहे हैं, उनके दामन को तरस रहे हैं। बोलो मैं इन सब को कैसे ढाढस बँधाऊँ?
मेरे औलिया, अगर खुद जाना था तो वह प्यास भी ले जाते। यह आस और तड़पन भी ले जाते। रोता बिलखता खुसरो यकायक अवाक खड़ा रह गया। सीने में तूफ़ान उठा, लगा दिन होते हुए भी रात हो गई है। खुसरो का दिल धड़क कर कहने लगा – चल, चल खुसरो, अपने मुर्शिद के देश चल। अब तेरा यहाँ क्या काम? यहाँ तो अब रात हो गई है। खुसरो सरपट गुरु की कब्र की तरफ दौड़ पड़ा। कब्र के पास पहुँचते ही भीतर से आह निकली। इस आह में ऐसी चीख थी, ऐसी अरदास थी, कि वह कबूल हुई। खुसरो कभी न उठने के लिए कब्र पर झुका, और अपने मुर्शिद पर ही अपना जीवन समाप्त कर दिया।
बस पपीहा तृप्त हो गया। उसकी पिऊ पिऊ हमेशा के लिए समाप्त हो गई। दोनों मिलकर एक हो गए। खुसरो एक ऐसे मुरीद थे, जिन्होंने अपनी पाक खिदमत द्वारा मंजिले मकसूद को हासिल किया था। अपना सर्वस्व गुरु पर न्योछावर कर दिया था। धन्य हैं ऐसे शिष्य।
R p guru ji
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